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धान की खेती की पूरी जानकारी, कैसे कम करें लागत और कमाएं ज्यादा मुनाफा

धान भारत की मुख्य फसल है। मुख्यतौर पर ये मॉनसून की खेती है लेकिन कई राज्यों में धान सीजन में दो बार होता है। आपको धान की नर्सरी लेकर रोपाई तक A टू Z जानकारी दे रहा है… करेंं तैयारी। धान, भारत समेत कई एशियाई देशों की मुख्य खाद्य फसल है। इतना ही नहीं दुनिया में मक्का के बाद जो फसल सबसे ज्यादा बोई और उगाई जाती है वो धान ही है। करोड़ों किसान धान की खेती करते हैं। खरीफ सीजन की मुख्य फसल धान लगभग पूरे भारत में लगाई जाती है। अगर कुछ बातों का शुरु से ही ध्यान रखा जाए तो धान की फसल ज्यादा मुनाफा देगी। धान की खेती की शुरुआत नर्सरी से होती है, इसलिए बीजों का अच्छा होना जरुरी है। कई बार किसान महंगा बीज-खाद तो लगाता है, लेकिन सही उपज नहीं मिल पाती है, इसलिए बुवाई से पहले बीज व खेत का उपचार कर लेना चाहिए। बीज महंगा होना जरुरी नहीं है बल्कि विश्वसनीय और आपके क्षेत्र की जलवायु और मिट्टी के मुताबिक होना चाहिए। भारतीय चावल अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद के कृषि वैज्ञानिक डॉ. पी. रघुवीर राव बताते हैं, “देश के अलग-अलग राज्यों में धान की खेती होती है और जगह मौसम भी अलग होता है, हर जगह के हिसाब से धान की किस्में विकसित की जाती हैं, इसलिए किसानों को अपने प्रदेश के हिसाब से विकसित किस्मों की ही खेती करनी चाहिए।” ये भी पढ़ें- धान रोपाई में हो गई हो देरी तो श्रीविधि से करें खेती, मिल सकता है डेढ़ गुना अधिक उत्पादन वो आगे बताते हैं, “मई की शुरुआत से किसानों को खेती की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए, ताकि मानसून आते ही धान की रोपाई कर दें।” किसानों को बीज शोधन के प्रति जागरूक होना चाहिए। बीज शोधन करके धान को कई तरह के रोगों से बचाया जा सकता है। किसानों को एक हेक्टेयर धान की रोपाई के लिए बीज शोधन की प्रक्रिया में महज 25-30 रुपये खर्च करने होते हैं। देश में प्रमुख धान उत्पादक राज्यों में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलांगाना, पंजाब, उड़ीसा, बिहार व छत्तीसगढ़ हैं। पूरे देश में 36.95 मिलियन हेक्टेयर में धान की खेती होती है। कृषि मंत्रालय के अनुसार खरीफ सत्र 2016-17 में 109.15 मिलियन टन धान का उत्पादन हुआ, जोकि पिछले सत्र से 2.50मिलियन टन (2.34%) ज्यादा था। पिछले पांच वर्षों में 3.54 प्रतिशत अधिक रहा। ये भी पढ़ें- कम पानी में धान की ज्यादा उपज के लिए करें धान की सीधी बुवाई अपने क्षेत्र कि हिसाब से करें धान की किस्मों का चुनाव बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कृषि विज्ञान विभाग के प्रो. डॉ. विनोद कुमार श्रीवास्तव बताते हैं, “किसान दुकानदार के कहने पर ही धान के बीज चुनता है,जबकि प्रदेश में अलग-अलग क्षेत्र के हिसाब से धान की किस्मों को विकसित किया जाता है, क्योंकि हर जगह की मिट्टी, वातावरण अलग तरह का होता है।” ये भी पढ़ें- अपने क्षेत्र के लिए विकसित धान की किस्मों का करें चयन, तभी मिलेगी अच्छी पैदावार असिंचित दशा: नरेन्द्र-118, नरेन्द्र-97, साकेत-4, बरानी दीप, शुष्क सम्राट, नरेन्द्र लालमनी सिंचित दशा: सिंचित क्षेत्रों के लिए जल्दी पकने वाली किस्मों में पूसा-169, नरेन्द्र-80, पंत धान-12, मालवीय धान-3022, नरेन्द्र धान-2065 और मध्यम पकने वाली किस्मों में पंत धान-10, पंत धान-4, सरजू-52, नरेन्द्र-359, नरेन्द्र-2064, नरेन्द्र धान-2064, पूसा-44, पीएनआर-381 प्रमुख किस्में हैं। ऊसरीली भूमि के लिए धान की किस्में: नरेन्द्र ऊसर धान-3, नरेन्द्र धान-5050, नरेन्द्र ऊसर धान-2008, नरेन्द्र ऊसर धान-2009। बीज शोधन से नहीं लगेगा कोई रोग सबसे पहले दस लीटर पानी में 1.6 किलो खड़ा नमक मिलाकर घोल लें, इस घोल में एक अंडा या फिर उसी आकार का एक आलू डाले और जब अंडा या आलू घोल में तैरने लगे तो समझिए की घोल तैयार हो गया है। अगर अंडा या आलू डूब जाता है तो पानी में और आलू डालकर घोले, जबतक कि अंडा या आलू तैरने न लगे, तब जाकर घोल बीज शोधन के लिए तैयार है। तैयार घोल में धीरे-धीरे करके धान का बीज डालें, जो बीज पानी की सतह पर तैरने लगे उसे फेंक दें, क्योंकि ये बीज बेकार होते हैं। जो बीज नीचे बैठ जाए उसे निकाल लें, यही बीज सही होता है। इस घोल का उपयोग पांच से छह बार धान के बीज शोधन के लिए कर सकते हैं, तैयार बीज को साफ पानी से तीन से चार बार अच्छे से धो लें। फफूंदनाशी से बीजोपचार प्रति किलो बीज को 3 ग्राम बैविस्टिन फफूंदनाशक से उपचारित करें। फफूंदनाशक का उपयोग पाउडर के रूप में धुले हुण् बीज में मिलाकर कर सकते हैं या फिर 3ग्राम प्रति किलो बीज को पानी में मिलाकर उपचारित करें। ऐसे अंकुरित करें बीज उपचारित बीज को गीले बोरे में लपेटकर ठंडे कमरें में रखें। समय समय पर इस बोरे पर पानी सींचते रहें। लगभग 48 घंटे बाद बोरे को खोलें। बीज अंकुरित होकर नर्सरी डालने के लिए तैयार होते हैं। ये भी पढ़ें- दीवारों पर होती है गेहूं, धान, मक्का और सब्जियों की खेती, जानिए कैसे ? जैव उर्वरक से करें खेत की मिट्टी का उपचार खेत तैयार करते समय, प्रति एकड़ खेत की मिट्टी में 10-12 किलो बीजीए (नील हरित शैवाल) और 10-12 किलो पीएबी जैव उर्वरक का छिड़काव कर मिश्रित करें। इन उर्वरकों में उपस्थित जीव, रसायनिक उर्वरक से क्रमश: नाइट्रोजन व पोटाश तत्व, धान के पौधे तक अच्छे ढंग से पहुंचाने में सहायता करेंगे। बीज की बुवाई/पौधों की रोपाई इस बीज को खेत तैयार करके लेही विधि से बो सकते हैं। रोपाई विधि से बुवाई के लिए पहले से तैयार जमीन से 6 इंच ऊंची नर्सरी में इसे बोएं और 20 से 25दिन की नर्सरी तैयार करें और मुख्य खेत में रोपाई करें। ये भी पढ़ें- मई महीने में शुरू कर दें इन फसलों की बुवाई की तैयारी, मिलेगी अच्छी उपज रोपणी तैयार करें और एसआरआई विधि (श्रीविधि) से रोपाई करने के लिए अंकुरित बीज की नर्सरी तैयार करें। 12 से 14 दिन के पौधे तैयार करें, उसके बाद पौधों को पूरी जड़ व बीज सहित निकालें। तुरंत इस नर्सरी को पहले से तैयार खेत में 25 सेमी. दूरी पर कतारबद्ध रुप में बोएं। एक जगह पर एक से दो पौधे ही रोपें। दूरी निर्धारित करने के लिए पैडी मार्कर का भी उपयोग कर सकते हैं। जो पौधे से पौधे के लिए और कतार से कतार के लिए 25 सेमी. के अंतर पर निशान बनाता है। श्रीविधि से धान की रोपाई उसी खेत में करें जिसमें पानी न भरता हो। श्रीविधि से बुवाई के बाद खेत में पानी निकालने रहें और जब आवश्यकता हो तब, जैसे गेहूं के खेत में सिंचाई करते हैं उसी प्रकार धान के खेत में सिंचाई करें और खेत में नमी बना कर रखें। बाकी फसल प्रबंधन सामान्य धान की तरह करें। इस प्रकार से प्रबंधन करने से निश्चित ही कम लागत में अधिक उपज किसान को प्राप्त होगी। paddy cultivation in india Paddy Cultivators Paddy Field #story  Next Story अनार की बागवानी लगाने का सही समय, एक बार लगाकर कई साल तक ले सकते हैं उत्पादन अगस्त से सितम्बर और फरवरी से मार्च का महीना अनार के नए पौध लगाने का सबसे सही समय होता है, लेकिन बागवानी लगाते समय कुछ बातों का ध्यान रखकर किसान बढ़िया उत्पादन पा सकते हैं। Pintu Lal Meena   25 Aug 2021 अगर आप भी अनार की बाग लगाना चाहते हैं तो शुरू से ही कुछ बातों का ध्यान रखना पड़ता है। सभी फोटो: पिक्साबे  अनार एक ऐसी बागवानी फसल है, जिसे एक बार लगाने पर कई साल तक फल मिलते रहते हैं। अनार को सबसे ज्‍यादा स्‍वास्‍थ्‍यवर्धक और पोषक तत्‍वों से भरपूर फल माना जाता है। अनार में मुख्य रूप से विटामिन ए, सी, ई, फोलिक एसिड और एंटी ऑक्सीडेंट पाये जाते है। इसके अलावा, एंटी-ऑक्‍सीडेंट भी इस फल में बहुतायत में होता है। अगर आप भी अनार की बाग लगाना चाहते हैं तो शुरू से ही कुछ बातों का ध्यान रखना पड़ता है। क्योंकि कई बार किसान बाग लगा देते हैं, लेकिन जानकारी के अभाव में कई बार नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। अनार उपोष्ण जलवायु का पौधा है। यह अर्द्ध शुष्क जलवायु में अच्छी तरह उगाया जा सकता है। फलों के विकास व पकने के समय गर्म और शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है। फल के विकास के लिए तापमान 38 डिग्री सेल्सियस सही होता है। अनार की खेती के लिए जल निकास वाली रेतीली दोमट मिट्‌टी सबसे सही होती है। फलों की गुणवत्ता और रंग भारी मृदाओं की अपेक्षा हल्की मृदाओं में अच्छा होता है। अनार की प्रमुख किस्में गणेश: इस किस्म के फल मध्यम आकार के बीज कोमल और गुलाबी रंग के होते हैं। यह महाराष्ट्र की मशहूर किस्म है। ज्योति: फल मध्यम से बड़े आकार के चिकनी सतह और पीलापन लिए हुए लाल रंग के होते हैं। गुलाबी रंग की बीज मुलायम बहुत मीठे होते हैं। मृदुला: फल मध्यम आकार के चिकनी सतह वाले गहरे लाल रंग के होते हैं। एरिल गहरे लाल रंग की बीज मुलायम, रसदार और मीठे होते हैं। इस किस्म के फलों का औसत वजन 250-300 ग्राम होता है। भगवा: इस किस्म के फल बड़े आकार के भगवा रंग के चिकने चमकदार होते हैं। एरिल आकर्षक लाल रंग की व बीज मुलायम होते हैं। उच्च प्रबंधन करने पर प्रति पौधा 30 – 40 किलो उपज प्राप्त की जा सकती है। यह किस्म राजस्थान और महाराष्ट्र में बहुत उपयुक्त मानी जाती है। अरक्ता: यह एक अधिक उपज देने वाली किस्म है। फल बड़े आकार के, मीठे, मुलायम बीजों वाले होते हैं। एरिल लाल रंग की और छिलका आकर्षक लाल रंग का होता है। उच्च प्रबंधन करने पर प्रति पौधा 25-30 किग्रा. उपज प्राप्त की जा सकती है। कंधारी: इसका फल बड़ा और अधिक रसीला होता है, लेकिन बीज थोड़ा सा सख्त होता है। अन्य किस्में: रूबी, करकई , गुलेशाह , बेदाना , खोग और बीजरहित जालोर आदि। पौधे लगाने का सही समय अनार की बागवानी लगाने का सबसे सही समय अगस्त से सितम्बर या फिर फरवरी से मार्च का महीना होता है। पौधों को लगाने के लिए गड्ढे पौध रोपण के एक महीने 60 X 60 X 60 सेमी. (लम्बाईचौड़ाईगहराई.) आकार के गड्‌ढे खोदें, इसके बाद गड्‌ढे की ऊपरी मिट्टी में 20 किग्रा. सड़ी हुई गोबर की खाद 1 किग्रा. सिंगल सुपर फास्फेट .50 ग्राम क्लोरो पायरीफास चूर्ण मिट्‌टी में मिलाकर गड्‌डों को सतह से 15 सेमी. ऊंचाई तक भर दें। गड्‌ढे भरने के बाद सिंचाई करें ताकि मिट्टी अच्छी तरह से जम जाए। इसके बाद ही पौधों का रोपण करें। पौध रोपण का सही तरीका आमतौर पर 5 X 5 या 6 X 6 सघन विधि में बाग लगाने के लिए 5 X 3 मीटर की दूरी पर अनार का रोपण किया जाता है। सघन विधि से बाग लगाने पर पैदावार डेढ़ गुना तक बढ़ सकती है। इसमें लगभग 600 पौधे प्रति हैक्टेयर लगाये जा सकते हैं। कब और कैसे करें सिंचाई अनार एक सूखा सहनशील फसल हैं। मृग बहार की फसल लेने के लिए सिंचाई मई के महीने से शुरू करके मानसून आने तक नियमित रूप से करना चाहिए। वर्षा ऋतु के बाद फलों के अच्छे विकास के लिए नियमित सिंचाई 10-12 दिन के अन्तराल पर करना चाहिए। बूँद – बूँद सिंचाई (ड्रिप इरीगेशन) अनार के लिए उपयोगी साबित हुई है। इसमें 43 प्रतिशत पानी की बचत और 30-35 प्रतिशत उपज में वृद्धि पाई गई है। खाद और उर्वरक की सही मात्रा और समय पहले साल प्रति पौध नाइट्रोजन फास्फोरस पोटेशियम क्रमशः 125 ग्राम 125 ग्राम 125 ग्राम, दूसरे साल नाइट्रोजन फास्फोरस पोटेशियम क्रमशः 225 ग्राम 250 ग्राम 250 ग्राम, तीसरे साल नाइट्रोजन फास्फोरस पोटेशियम क्रमशः 350 ग्राम 250 ग्राम 250 ग्राम, चौथे साल नाइट्रोजन फास्फोरस पोटेशियम क्रमशः 450 ग्राम 250 ग्राम 250 ग्राम और पांचवें साल के बाद 10-15 किलो सड़ी हुयी गोबर की खाद और 600 ग्राम नत्रजन, 250 ग्राम फोस्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधा देना चाहिए । अनार के पेड़ों की छटाई अनार की दो प्रकार से छटाई की जा सकती है। एक तना पद्धति – इस पद्धति में एक तने को छोड़कर बाकी सभी बाहरी टहनियों को काट दिया जाता है। इस पद्धति में जमीन की सतह से अधिक सकर निकलते हैं। जिससे पौधा झाड़ीनुमा हो जाता है। इस विधि में तना छेदक का अधिक प्रकोप होता है। यह पद्धति व्यावसायिक उत्पादन के लिए उपयुक्त नही हैं। बहु तना पद्धति – इस पद्धति में अनार को इस प्रकार साधा जाता है कि इसमें तीन से चार तने छूटे हों, बाकी टहनियों को काट दिया जाता है। इस तरह साधे हुए तनें में प्रकाश अच्छी तरह से पहुंचता है। जिससे फूल व फल अच्छी तरह आते हैं। यह विधि ज्यादा उपयुक्त है। अनार से उत्पादन पौधे रोपण के तीन साल बाद फल आने लगते हैं। लेकिन व्यावसायिक रूप से उत्पादन रोपण के 5 वर्ष के बाद ही फल लेना चाहिए। अच्छी तरह से विकसित पौधा 60-80 फल प्रति वर्ष 25-30 वर्षों तक फल देता है। सघन विधि से बाग लगाने पर लगभग 480 टन उपज हो सकती है, जिससे एक हैक्टेयर से 5 -8 लाख रुपये सालाना आय हो सकती है। नई विधि को काम लेने से खाद व उर्वरक की लागत में महज 15 से 20 फीसदी की बढ़ोतरी होती है जबकि पैदावार 50 फीसदी बढ़ने के अलावा दूसरे नुकसानों से भी बचाव होता है। (पिन्टू लाल मीना, सरमथुरा, धौलपुर, राजस्थान में सहायक कृषि अधिकारी हैं।) #Pomegranate pomegranate farming #story  Next Story बीजों को लंबे समय तक सुरक्षित रखती है हल्दी, विशेषज्ञ से जानिए कैसे करते हैं इस्तेमाल चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर के वैज्ञानिकों ने हल्दी पाउडर के इस्तेमाल से बीज को लंबे समय तक सुरक्षित रखने में सफलता पायी है। Divendra Singh   21 Aug 2021 हल्दी के पाउडर के इस्तेमाल से बीजों को लंबे समय तक भंडारित किया जा सकता है। सभी फोटो: पिक्साबे फसलों की कटाई के बाद अगले सीजन के लिए बीजों को सुरक्षित रखना किसानों के लिए सबसे मुश्किल काम होता है, किसान कई तरह की रसायनिक दवाओं का इस्तेमाल करते हैं, जिनसे बीज तो सुरक्षित रहता है, लेकिन सेहत के लिए रसायन नुकसानदायक होता है। इससे बचाव के लिए वैज्ञानिकों ने सुरक्षित और सस्ता तरीका ढूंढ लिया है। चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर के विशेषज्ञों ने देशी तरीके से बीज का भंडारण किया है, जोकि पूरी तरह से कारगर भी है। विश्वविद्यालय के बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के प्रोफेसर डॉ सीएल मौर्या और उनकी टीम ने हल्दी से अरहर के बीजों का भंडारण कर सफलता पायी है। अरहर के बीज के भंडारण के बाद उसकी बुवाई के बाद पौधों की अच्छी वृद्धि भी हुई। बीज विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के प्रोफेसर डॉ सीएल मौर्या गाँव कनेक्शन से बताते हैं, “किसान फसल कटाई के बाद अगले साल के लिए बीज और अपने खाने के लिए अनाज रखता है, जिसको बचाने के लिए तरह-तरह के रसायनों का इस्तेमाल करता है, जो काफी खतरनाक होते हैं। हम लंगे समय कोशिश में थे कि कुछ ऐसा विकल्प हो जिससे हम कम खर्च में बीजों को लंबे समय तक सुरक्षित कर पाएं।” विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने हल्दी पाउडर, नीम, यूकेलिप्टस, लेमन ग्रास, तुलसी, लैंटाना कैमारा की पत्तियों और रस का प्रयोग बीजों को सुरक्षित रखने के लिए किया। इन सबमें सबसे असरदार हल्दी पाउडर रहा। अरहर के बीज को हल्दी के पाउडर में एक साल तक सुरक्षित रखने के बार विश्वविद्यालय के फार्म पर बीज की बुवाई की अच्छा परिणाम मिला। डॉ. सीएल मौर्या आगे कहते हैं, “एक किलो बीज में 4 ग्राम हल्दी पाउडर अच्छी तरह मिलाकर देना चाहिए और बीज में नमी 10% से अधिक नहीं होनी चाहिए, इसलिए भंडारण से पहले बीज को अच्छी तरह से सुखाकर हल्दी पाउडर में रखना चाहिए।” वैज्ञानिकों ने हल्दी पाउडर, नीम, यूकेलिप्टस, लेमन ग्रास, तुलसी, लैंटाना कैमारा की पत्तियों और रस का प्रयोग बीजों को सुरक्षित रखने के लिए किया। इन सबमें सबसे असरदार हल्दी पाउडर रहा। डॉ मौर्या ने इस शोध को 28 जनवरी 2020 में थाईलैंड में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस में प्रजेंट किया था, जहां पर इस प्रयोग के लिए उन्हें डिस्टिंग्विश्ड साइंटिस्ट का अवार्ड मिला था। उनकी रिसर्च को आइसीएआर ने मंजूरी दे दी है। डॉ मौर्या आगे बताते हैं, “हल्दी में करक्यूमिन पाया जाता है तो कड़वा होता है, जिसकी वजह से बैक्टीरिया, फंगस, कीड़े नहीं लगते हैं। और लगभग एक साल तक बीज को सुरक्षित रख सकते हैं। कई बार किसान के पास ज्यादा बीज होता है तो उसे अपने खाने में भी इस्तेमाल कर लेता है। हल्दी पाउडर में भंडारण करने से यह पूरी तरह रसायनमुक्त रहता है।” हल्दी में एंटी आक्सीडेंट और एंटी माइक्रोबियल गुण भी होते हैं। इसी कारण से घर में रखी हल्दी में भी कीड़े नहीं पड़ते हैं। वैज्ञानिकों की टीम आने वाले समय में करक्यूमिन के नैनो पार्टिकल्स से बीजों को सुरक्षित रखने के लिए काम कर रही है। डॉ मौर्या के अनुसार, “नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से नैनो पॉर्टिकल्स पर हम काम कर रहे हैं, जिससे बीजों को सुरक्षित रखना और आसान हो जाएगा। #seed treatment #seed treatment method #csa university #story  Next Story बरसीम, नैपियर घास, चुकंदर या फिर भूसा… क्या खिलाने पर पशु देंगे ज्यादा दूध? एनडीडीबी के विशेषज्ञ बता रहे हैं हरे चारे की अहमियत देश में ज्यादातर पशुपालक अपनी गाय-भैंसों को भूसा आदि फसल अवशेष खिलाते हैं। हरे चारे के न मिलने या फिर कम मात्रा से पशुओं में पोषण की कमी रह जाती है, जिससे वो कम दूध देते हैं। इस वीडियो में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के चारा विशेषज्ञ किसानों को बता रहे हैं कैसे किसान पूरे साल वो हरे चारे को उगाकर दूध उत्पादन में मुनाफा कमा सकते हैं। गाँव कनेक्शन   19 Aug 2021 आणंद (गुजरात)। पशुपालन और डेयरी के कारोबार से अगर कमाई करना है तो पशुओं को हरा चारा जरुर खिलाएं। भारत में हरे चारे की करीब 30 फसलों की 200 उन्नत किस्में मौजूद हैं। राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड के जानकारों की सलाह है, किसान को अगर दूध के कारोबार से कमाई करनी है तो अपने खेतों में साल भर हरे चारे का प्रबंध जरुर करें। भारत में ज्यादातर पशुपालक अपने पशुओं को फसल अवशेष (धान, गेहूं, मक्का, बाजरा आदि का बचा भाग) खिलाते हैं। जिसके चलते पशुओं को उचित पोषण नहीं मिल पाता है। इसका असर दुग्ध उत्पादन पर भी पड़ता है। एक पशु को औसतन 20-30 किलो हरे चारे की जरुरत होती है। स्वेत क्रांति के गढ़ गुजरात के आणंद में स्थित राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (National Dairy Development Board) के पशु विशेषज्ञ जानकार और वैज्ञानिक किसान को सलाह देते हैं कि वो पशुओं को हरा चारा जरुर खिलाएं। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (NDDB) के हरा चारा विशेषज्ञ दिग्विजय सिंह गांव कनेक्शन को बताते हैं, “हरा चारा पशुओं का प्राकृतिक आहार है। हरे चारे से पशुओं को दुग्ध उत्पादन के लिए प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, मिनरल आदि भरपूर मात्रा में मिलते हैं,जिन्हें पशु आसानी से पचा जाते हैं। जो किसान अपने खेत में हरे चारे का उत्पादन करता है वो दुग्ध उत्पादन में न सिर्फ आगे बढ़ता है बल्कि अच्छा पैसा भी कमाता है।” एक एकड़ खेत से 5 पशुओं के लिए पूरे साल उगा सकते हैं चारा वो आगे कहते हैं, “भारत में हरे चारे वाली फसलों की कई किस्में मौजूद हैं, जिनमें बरसीम, चरी, जई, चुकंदर, नैपियर घास, चारा सरसों, गिनी ग्रास प्रमुख हैं। किसान स्थानीय जलवायु और मिट्टी के अनुसार सालभर खेती कर सकते हैं। किसान चारा देने वाली फसलों की सही किस्मों का चुनाव करें तो एक एकड़ खेत से 5 पशुओं (भैंस-गाय) के लिए पर्याप्त 30-40 टन चारे का उत्पादन कर सकता है।” चारे की कुछ किस्में मौसमी होती हैं तो कुछ एक बार लगाने पर 3 से 4 साल तक उत्पादन देती हैं। बरसीम और जई जैसे मौसमी हैं तो नैपियर घास एक बार में लगाने पर 3-4 साल तक उत्पादन देती है। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड में हर तरह के चारे की उगाने की विधि, उनकी किस्मों का प्रदर्शन भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त देश के विभिन्न कृषि, पशु विश्विद्यालय और कृषि विज्ञान केंद्रों के जरिए भी इनका प्रदर्शन किया जाता है। देश में कुल 19.25 करोड़ मवेशी राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012 में देशभर में कुल 19.09 करोड़ पशु थे। 10.87 करोड़ भैंस और दुधारू मवेशियों की संख्या 13.33 करोड़ थी। 2019 की 20वीं पशुधन गणना में मवेशियों की संख्या बढ़कर 19.25 करोड़ हो गई, भैंसों की संख्या 10.99 करोड़ रही दुधारू पशुओं की संख्या भी बढ़कर 13.64 करोड़ पहुंच गई। दुग्ध उत्पादन में भी भारत अव्वल है लेकिन देश में पशुपालन अभी भी परंपारगत तरीकों से होता है। जिसमें हरे चारे की अलग से खेती का अभाव दिखता है। यूपी के बरेली स्थित भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक महेश चंद्र ने गांव कनेक्शन को बताते हैं कि कैसे भारत में हरे चारे की कमी के चलते पशुपालक नुकसान उठाते हैं। वो कहते हैं, “भारत में ग्रीन फोडर (हरे चारे) की कमी है। देश में पशु चारे की फसल उगाने का चलन नहीं है। देश में मुश्किल से 4 से 5 फीसदी हिस्से पर ही पशु चारा उगाया जाता है। ज्यादातर किसान अनाज वाली फसलों के अवशेष पशुओं को खिलाते हैं। जिससे पशु को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। इसका असर न सिर्फ दुग्ध उत्पादन बल्कि उसके बच्चे देने की क्षमता पर भी पड़ता है।” ये भी पढ़ें- दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए पशुओं को खिलाइए चारा बीट, अक्टूबर से नवंबर तक कर सकते हैं बुवाई milk powder #Dairy dairy business #NDDB #video  Next Story यूपी के सीतापुर में किसानों के एफपीओ ने खोला पहला आईपीएम मार्ट, जानिए आईपीएम की खूबियां सब्जियों की खेती को रोग और कीट-पतंगों से बचाने के लिए किसान हजारों रुपए के रासायनिक कीटनाशक डालते हैं। लेकिन ये काम सिर्फ कुछ रुपए का एक फ्रूट प्लाई ट्रैप और फेरोमोन ट्रैप भी कर सकता है। सीतापुर में किसानों के FPO ने इसका आउटलेट खोला है। Mohit Shukla   18 Aug 2021 यूपी के पहले आईपीएम आउटलेट की शुरुआत सीतापुर में किसानों के एक एफपीओ ने किया,  नाबार्ड के मुख्य महाप्रबंधक ने इसका शुभारंभ किया। महोली (सीतापुर)। कीटनाशक का सबसे ज्यादा इस्तेमाल फल और सब्जियों में किया जाता है, क्योंकि उसमें कीट और रोग ज्यादा लगते हैं। लेकिन कुछ और तरीके हैं जिनसे फल और सब्जियों की खेती बिना कीटनाशक के हो सकती है, आईपीएम (एकीकृत जीवनाशी प्रबंधन) के जरिए उनमें से एक है। आईपीएम तकनीकी से बिना पेस्टीसाइड के सब्जियों की खेती को बढ़ावा देने और आईपीएम के अदानों को आम किसानों तक पहुंचाने के लिए यूपी के सीतापुर में किसानों के एक एफपीओ ने प्रदेश के पहले आईपीएम मार्ट (आउटलेट) की शुरुआत की है। उत्तर प्रदेश के सीतापुर में जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर महोली ब्लॉक के मस्जिद बाज़ार इलाके को सब्जी उत्पादन का गढ़़ माना जाता है। कृषि विभाग के मुताबिक यहां पर करीब 500 हेक्टेयर भूमि सब्जियों की खेती होती है। इसी इलाके में कार्यरत किसानों की कंपनी (एफपीओ) “ओजोन कृषक उत्पादक संगठन” ने आईपीएम मार्ट (आउटलेट) की शुरुआत की है। 13 अगस्त को राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (Nabard) के मुख्य महाप्रबन्धक डॉ डी.एस. चौहान की इसका उद्घाटन किया। इस स्टोर में आईपीएम में इस्तेमाल होने वाले सभी आदान (फ्रूट फ्लाई ट्रैप, सोलर ट्रैप, लाइट ट्रैप, स्टिकी ट्रैप, प्रकाश प्रपंच) आदि आसानी से मिल सकेंगे। एफपीओ और इलाके के दूसरे किसानों को तकनीकी सहयोग और प्रशिक्षण कृषि विज्ञान केंद्र कटिया द्वारा किया जा रहा है। ये भी पढ़े- कीटनाशकों की जरुरत नहीं : आईपीएम के जरिए कम खर्च में कीड़ों और रोगों से फसल बचाइए इस दौरान राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन परियोजना के तहत 30 किसानों (आईपीएम दूत) को सोलर लाइट ट्रैप दिए गए। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन केंद्र, पूसा, नई दिल्ली के सहयोग से किसानों के बीच आईपीएम (integrated pest management) तकनीकी का प्रचार-प्रसार करने वाले केवीके कटिया के प्रभारी अध्यक्ष डॉ. दया एस श्रीवास्तव आईपीएम की उपयोगिता और जरुरत के बारे में बताते हैं। वो कहते हैं, “पूरे सीतापुर जिले में सबसे ज्यादा कीटनाशक का प्रयोग इसी मस्जिद बाजार कस्बे के आसपास होता है। साल 2013-14 में केवीके ने यहां पर एक सर्वे किया था जिसमें पता चला था इस इलाके में निमोटोड (सूत्रकृमि) की समस्या काफी है। ये न दिखने वाले कीड़े पौधों की जड़ों में लगते हैं। फसलों बचने के लिए किसान कई तरह के रसायनों का प्रयोग करता है, जिससे लागत ज्यादा और उत्पादन कम हो जाता है। लेकिन हम लोगों ने यहां आईपीएम तकनीकों का प्रदर्शन और प्रशिक्षण शुरु किया जिसके तहत किसानों को काफी फायदा हुआ।” डॉ. दया श्रीवास्तव के मुताबिक इलाके के कई किसानों के प्रति साल कम कीटनाशक और निमोटोड पर नियंत्रण से साल में 20000-25000 प्रति एकड़ की बचत होने लगी है। ये किसान आईपीएम के महत्व को समझ गए थे लेकिन इसके आदान मिलने में दिक्कत थी इसलिए हम लोगों ने ओजोन को प्रेरित किया और उन्होंने इस आईपीएम मार्ट की शुरुआत की। सीतापुर में एक किसान के खेत में लगे सोलर ट्रैप में फंसे कीट पतंगे। 30 आईपीएम दूत दिखाएंगे किसानों को कम लागत में खेती की राह नाबार्ड के मुख्य महाप्रबंधक ने आईपीएम स्टोर का उद्घाटन करने के साथ ही कई गांवों का दौरा किया और किसानों से मुलाकात की। सीतापुर में ही अल्लीपुर गांव के प्रगतिशील किसान विनोद मौर्या के कृषि फार्म पर पहुंचे डॉ. चौहान ने जैविक विधि से तैयार की जा रही मिर्च की नर्सरी की जानकारी ली। उन्होंने विक्रमपुर गांव मे आयोजित किसान गोष्ठी में प्रगतिशील 30 किसानों (आईपीएम दूत ) को एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन से जुड़े उपकरण फेरोमोन ट्रैप, लाइट एवं फ्रूट फ्लाई ट्रैप वितरित किए। आईपीएम दूतों के बारे में डॉ. दया श्रीवास्तव ने कहा, “राष्ट्रीय समेकित नाशीजीव प्रबंधन परियोजना के तहत महोली ब्लाक के तीन गांवों विक्रमपुर, राजपुर, भगवानपुर को चयनित किया गया है। इनमें से हर गांव से 10-10 किसानों (आईपीएम दूत) को चुना गया है, जिन्हें आईपीएम के उपकरण मुफ्त में दिए गए हैं। ये आईपीएम दूत पर्यावरण स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए समेकित नाशीजीव प्रबंधन तकनीकों को लेकर जागरूकता फैलाने का काम करेंगे। तीन गांवों का रिजल्ट देखने के बाद योजना को जिले में विस्तार किया जाएगा।” इस दौरान मुख्य महाप्रबन्धक डॉ डी.एस. चौहान ने कहा, “सब्जी की खेती में कीट-व्याधियों की समस्या बहुत होती है, जिसके चलते किसानों को हर साल कई तरह के रासायनिक पेस्टीसाइड डालने पड़ते हैं। जिसका असर न सिर्फ मिट्टी बल्कि मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ता है, लेकिन कम कीमत में उपलब्ध एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन से जुड़े उपकरण लाभदायक सिद्ध होंगे। इससे किसानों की आय में वृद्धि होगी।” ओजोन कृषक उत्पादक संगठन के संरक्षक विकास तोमर ने गांव कनेक्शन को बताया, “किसानों के इस एफपीओ से 800 किसान जुड़े हैं। जिनमें से ज्यादातर सब्जियों की खेती करते हैं। समेकित नाशीजीव प्रबंधन एवं परम्परागत स्वदेशी तकनीकी ज्ञान का प्रमाणीकरण परियोजना के जरिए मृदा, जल, बीज, खाद, दवा, फसल चक्र एवं पर्यावरण हितैषी तकनीकों के माध्यम से किसानों को आत्मनिर्भर बनाना है।” तोमर ने कहा, “सब्जियों की खेती में किसानों के हजारों रुपए कीटनाशक और खरपतवार नाशक में खर्च हो जाते हैं। आईपीएम के जरिए न सिर्फ पैसे बचाए जा सकते हैं बल्कि फसल भी रयासन मुक्त होगी, जिसका अच्छा मूल्य मिलेगा। लेकिन एक समस्या थी कि आईपीएम के आदान (एग्री इनपुट) आसानी मिल नहीं पाते थे, लेकिन हमारे स्टोर में आसानी में मिल सकेंगे।” ये भी पढ़े- वीडियो: फेरोमोन ट्रैप का इस्तेमाल कर करिए कीट और कीटनाशकों की छुट्टी लाइट और फ्रूट फ्लाई ट्रैप हैं कारगर विकास सिंह तोमर ने कहा, “जो किसान सब्जी की खेती के साथ साथ मछली पालन करते है उनके लिए सोलर से संचालित लाइट एवं फ्रूट फ्लाई ट्रैप बहुत ही कारगर है। फसल के लिए जो शत्रु कीट हैं, वो ट्रैप में फंस जाते है। जिन्हें किसान भोजन के रूप में मछलियों दो दे सकते हैं।” एफपीओ ने निदेशक और प्रगतिशील किसान विनोद कुमार ने इस दौरान कह, “हमारे संगठन के किसान कम कीटनाशक या फिर जहर मुक्त उत्पादों को पैदा करने को प्रयासरत हैं। हमारी कोशिश है कि बेहतर क्वालिटी की सब्जियां पैदा की जाएं और उन्हें यूरोपिटन देशों को निर्यात किया जाए, साथ ही उनका प्रसंस्करण भी किया जाए।” ये भी पढ़े- आईपीएम मेला: किसानों को मुफ्त मिले फ्रूट फ्लाई ट्रैप और सांप से बचने के यंत्र, बताई गईं फसल बचाने की सस्ती और घरेलू विधियां डॉ. दया एस. श्रीवास्तव ने आईपीएम की खूबियां बताते हुए कहते हैं, “एक फल मक्खी तरबूज, कद्दू और लौकी जैसी फसलों के 40 बतिया (फलों) को सड़ा सकती है। खेत में ऐसी हजारों मक्खियां होती हैं। किसान ऐसे कीट-पतंगों से फसल बचाने के लिए हजारों रुपए के कीटनाशक डालते हैं फिर भी कई बार किसानों की पूरी फसल चली जाती है लेकिन 50 से 70 रुपए का एक फल मक्खी (फ्रूट फ्लाई) ट्रैप आसानी से ये फसल बचा सकता है।” ये भी देखें- कीट विशेषज्ञ से सीखिए कैसे बिना कीटों को मारे और कीटनाशक के कर सकते हैं जैविक खेती agricuture #agriculture technology #farmer #story  Next Story देशी गायों के संरक्षण और नस्ल सुधार में मदद करेगी इंडिगऊ चिप देशी नस्ल की गायों के संरक्षण के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने एसएनपी आधारित इंडिगऊ चिप विकसित की है, जिसकी मदद से देशी और संकर किस्म की गायों को पहचानने में आसानी होगी। Divendra Singh   16 Aug 2021 भारत में गिर, साहीवाल जैसे 43 से अधिक देशी गाय की नस्लें हैं, जिनके संरक्षण की जरूरत है। फोटो: पिक्साबे गिर, साहिवाल जैसी देशी नस्ल की गायों को पालने से पहले आपको सोचना नहीं पड़ेगा कि गाय की शुद्ध है या कहीं संकर तो नहीं है। वैज्ञानिकों ने देसी गायों के संरक्षण के लिए एकल पॉलीमॉर्फिज्म (एसएनपी) आधारित ‘इंडिगऊ’ चिप विकसित है, जिसकी मदद से देसी गायों की पहचान करना आसान हो जाएगा। पिछले कुछ सालों में एक बार फिर लोगों का रुझान देसी गायों की तरफ बढ़ा है, लेकिन इतने सालों में देसी और विदेशी गायों के संकर से नस्लें खराब भी हुई हैं। इससे परेशानी का हल निकालने के लिए जैव प्रौद्योगिकी विभाग के राष्ट्रीय पशु जैव प्रोद्योगिकी संस्थान (एनएआईबी), हैदराबाद के वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से यह स्वदेशी चिप विकसित की गई है। केंद्रीय राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने 13 अगस्त को गिर, कंकरेज, साहीवाल, अंगोल आदि देशी पशुओं की नस्लों के शुद्ध किस्मों को संरक्षण प्रदान करने के लिए भारत की पहली एकल पॉलीमॉर्फिज्म (एसएनपी) आधारित चिप ‘इंडिगऊ’ का शुभारंभ किया। केंद्रीय राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने 13 अगस्त क भारत की पहली एकल पॉलीमॉर्फिज्म (एसएनपी) आधारित चिप ‘इंडिगऊ’ का शुभारंभ किया। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बायोटेक्नोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. सुबीर मजूमदार ‘इंडिगऊ’ चिप के बारे में समझाते हुए कहते हैं, “भारत में गाय की बहुत सारी देसी नस्लें हैं, जिनमें गर्मी बर्दाश्त करने की क्षमता होती है, जबकि विदेशी गायों के साथ ऐसा नहीं होता है, जरा सा तापमान बढ़ा की गाय बीमार हो जाती हैं। जिस तरह ग्लोबल वार्मिंग है, दूसरे देश के लोग भी यही कहते हैं कि आपके यहां कि गाय कैसे गर्मी बर्दाश्त कर लेती हैं। भारत में इतनी सारी देसी किस्में हैं, सब की कुछ न कुछ खासियतें हैं, कुछ अकाल यानी सूखे में भी रह लेती हैं, कुछ गर्मी में भी रह लेती हैं। गाय की जो भी खासियतें हैं वो उनके जीन में ही होती हैं।” “लेकिन इन देसी नस्लों को हम खो रहे हैं, क्योंकि कृत्रिम गर्भाधान से किसी दूसरी नस्ल का स्पर्म किसी दूसरी गाय में डाल दिया जाता है। विदेशी गायों के नस्ल के स्पर्म से भी गायों का कृत्रिम गर्भाधान किया गया, इसे क्या हुआ कि संकर किस्म पैदा हो गईं। लेकिन उनमें ढेर सारी खामियां हैं, जैसे कि वो गर्मी नहीं बर्दाश्त कर पाती हैं, जल्दी बीमार भी हो जाती हैं। ये खराब नस्लें किसानों के लिए बोझ भी बन जाती हैं, क्योंकि धीरे-धीरे गायों की नस्लें खराब होती जा रही हैं, “डॉ मजूमदार आगे बताते हैं। भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान, बरेली के वैज्ञानिकों ने देसी और संकर गायों पर कई वर्षों तक शोध करने के बाद पता लगाया था कि देसी नस्ल की गायें खुद को आसानी से हर तरह के मौसम के अनूकूल कर लेती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती गर्मी में देशी नस्ल की गाय (गिर, साहीवाल और थारपारकर) संकर नस्ल की गायों अपेक्षा तापमान को झेल पाएंगी। फोटो: दिवेंद्र सिंह देश में साहीवाल (पंजाब), हरियाणा (हरियाणा), गिर (गुजरात), लाल सिंधी (उत्तराखंड), मालवी (मालवा, मध्यप्रदेश), देवनी (मराठवाड़ा महाराष्ट्र), लाल कंधारी (बीड़, महाराष्ट्र) राठी (राजस्थान), नागौरी (राजस्थान), खिल्लारी (महाराष्ट्र), वेचुर (केरल), थारपरकर (राजस्थान), अंगोल (आन्ध्र प्रदेश), कांकरेज (गुजरात) जैसी 43 से अधिक देसी गाय की किस्में हैं। गायों का जर्म प्लाज्म न कहीं खो जाए, इसलिए यह चिप विकसित की है। डॉ मजूमदार कहते हैं, “हमने विभिन्न तरह की गायों की नस्लों को लेकर यह चिप तैयार की है, इसका नाम सिंगल न्यूक्लियोटाइड पॉलीमॉर्फिज्म पॉलीमॉर्फिज्म चिप नाम रखा गया है। इसमें ज्यादा से ज्यादा गायों के डीएनए को लेकर हमने सिंगल न्यूक्लियर पॉलीमॉर्फिज्म कहते हैं, अगर एक भी जगह म्यूटेशन होगा तुरंत पता चल जाएगा। इसके बनाने के लिए हमने अमेरिका की भी मदद ली जो पहले से इस पर काम कर रहा था।” यह चिप कैसे काम करती है और इससे गायों का संरक्षण कैसे होगा के बारे में डॉ सुबीर कहते हैं, “इसमें हम गाय का ब्लड लेकर परीक्षण करेंगे लेकिन और आपके सामने 100 गाय हैं, इसमें परीक्षण करने पर पता चल जाएगा की कौन सी शुद्ध नस्ल है और कौन सी संकर नस्ल है।क्योंकि कई बार गाय देखने में नहीं पहचान में आती कि शुद्ध है कि संकर, इसलिए इसकी मदद से हम संकर और शुद्ध नस्ल को पहचान सकते हैं, इसकी मदद से हम स्वदेशी गायों का संरक्षण कर सकते हैं।” गायों की संकर किस्मों की वजह से धीरे-धीरे नस्लें खराब भी हुईं हैं, जिनका असर दूध उत्पादन पर पड़ता है। फोटो: पिक्साबे साल 2019 में जारी 19वीं पशुगणना के अनुसार देश में गोवंशीय पशुओं की कुल संख्या 192.49 मिलियन है, जबकि मादा गायों की कुल संख्या 145.12 मिलियन है। देश में विदेशी/संकर नस्‍लों की गोवंशीय पशुओं की संख्या 50.42 मिलियन और स्‍वदेशी//अवर्गीय की संख्या 142.11 मिलियन है। संकर किस्मों की वजह से दूध उत्पादन पर भी असर पड़ा है, धीरे-धीरे देसी नस्लें खराब हो गई हैं, जिसकी वजह से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे कई राज्यों में लोग गायों को छुट्टा छोड़ देते हैं, जो किसानों की फसलें बर्बाद करते हैं। इसके साथ ही यह एक डिक्शनरी तैयार होगी, यह दुनिया सबसे बड़ी डिक्शनरी होगी। इसमें 11,496 मार्कर (एसएनपी) हैं जो कि अमेरिका और ब्रिटेन की नस्लों के लिए रखे गए 777 के इलुमिना चिप की तुलना में बहुत ज्यादा हैं। कई साल के प्रयोग के बाद इसे विकसित किया है, इसमें सारी गायों का डेटा भी उपलब्ध है। कांकरेज गाय राजस्थान के दक्षिण-पश्चिमी भागों में पाई जाती है, जिनमें बाड़मेर, सिरोही और जालौर ज़िले मुख्य हैं। कांकरेज प्रजाति के गोवंश का मुँह छोटा और चौड़ा होता है। इस नस्ल के बैल भी अच्छे भार वाहक होते हैं। फोटो: दिवेंद्र सिंह चिप की मदद से अच्छी नस्ल के सांड़ की भी पहचान की जा सकेगी। डॉ मजूमदार कहते हैं, “जिस तरह से देश में अच्छी नस्ल के सांड़ की सबसे ज्यादा कमी है, क्योंकि सारे सांड़ बेहतर नहीं होते हैं, लेकिन अभी तक अच्छे सांड़ की पहचान में ही पांच से सात साल लग जाते हैं। क्योंकि वो पहले बड़ा होगा फिर उसकी गाय के साथ मेटिंग होगी और जो बछिया हुई उसे तैयार होने में कई साल लगे फिर वो गाभिन हुई और जब बच्चा हुआ तब पता चलता है कि कितना दूध दे रही है, जिससे सांड़ की गुणवत्ता का पता चलता है।” वो बताते हैं, “लेकिन इस चिप की मदद से साड़ छोटा रहेगा तब ही पता चल जाएगा कि सांड़ अच्छा है कि खराब है। इसमें पांच-सात साल नहीं लगेगा। इसके लिए ज्यादा दूध देने वाली गाय से फार्मुला बना लेंगे, जिनसे पैदा होने वाला बुल बड़ा होगा अच्छी नस्ल का होगा। इसके लिए पांच साल नहीं लगेगा। अभी तक लोग क्या करते हैं, अगर उनके पास 100 बछड़े हैं तो 5 रखकर 95 को निकाल देते हैं, क्या पता उसी 95 में ही अच्छी नस्ल रही हो, इससे पता चल जाएगा।” भारत की पहली एकल पॉलीमॉर्फिज्म (एसएनपी) आधारित चिप “इंडिगऊ” का शुभारंभ करते हुए केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि इंडिगऊ पूर्ण रूप से स्वदेशी और दुनिया की सबसे बड़ी पशु चिप है। इसमें 11,496 मार्कर (एसएनपी) हैं जो कि अमेरिका और ब्रिटेन की नस्लों के लिए रखे गए 777के इलुमिना चिप की तुलना में बहुत ज्यादा हैं। हमारी अपनी देशी गायों के लिए तैयार किया गया यह चिप आत्मनिर्भर भारत की दिशा के लिए एक शानदार उदाहरण है। उन्होंने कहा कि यह चिप बेहतर पात्रों के साथ हमारी अपनी नस्लों के संरक्षण के लक्ष्य की प्राप्ति करते हुए 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने में सहयोग प्रदान करने वाले सरकारी योजनाओं में व्यावहारिक रूप से उपयोगी साबित होगा। उन्होंने इस बात पर गर्वान्वित महसूस किया कि डीबीटी और एनआईएबी जैसे विभागों के द्वारा भी किसानों के कल्याण और आय को बढ़ावा देनें में योगदान प्रदान किया जा रहा है। Also Read: भारत की ज्यादा दूध देने वाली देसी गाय की नस्लों के बारे में जानते हैं ? IndiGau #cattle #cow #milk production #story  Next Story बिहार: मछलियों का दाना बनाने में हो रहा लीची की गुठलियों का इस्तेमाल, 25% तक कम हो जाएगी फीड की लागत बिहार में लीची का सबसे अधिक उत्पादन होता है, डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय विश्वविद्यालय पूसा, बिहार के वैज्ञानिक लीची की गुठलियों का इस्तेमाल मछली का दाना बनाने में कर रहे हैं। Divendra Singh   14 Aug 2021 मछली पालन में उनका दाना सबसे जरूरी होता है, जितना अच्छा दाना देंगे उतनी अच्छी पैदावार होगा। फोटो: गांव कनेक्शन मछली पालन एक बढ़िया व्यवसाय है, लेकिन इसमें किसान की काफी लागत मछलियों के दाने में ही चली जाती है, लेकिन वैज्ञानिकों ने लीची की गुठलियों से मछली दाना बनाना शुरू किया है, जो दूसरे फीड से काफी कम लागत में तैयार हो जाता है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर, बिहार के मुजफ्फरपुर के ढोली स्थित मात्स्यिकी महाविद्यालय के वैज्ञानिकों ने इसे तैयार किया है। बिहार के मुजफ्फरपुर लीची के लिए मशहूर है और देश की सबसे ज्यादा लीची का उत्पादन भी यही होता है। मात्स्यिकी महाविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. शिवेंद्र कुमार पिछले दो साल से मछली दाने के विकल्प के तलाश में लगे हुए थे। डॉ. शिवेंद्र कुमार लीची की गुठलियों के इस्तेमाल से मछलियों का फीड बनाने की प्रकिया के बारे में बताते हैं, “लीची की खेती के साथ ही बिहार मछली पालन के लिए जाना जाता है, हम शुरू से ऐसा विकल्प तलाश रहे थे, जिससे फीड बनाने की लागत में कमी आ जाए। क्योंकि लीची हमारे यहां की मुख्य फसल है और हमारी कोशिश थी कि कैसे उसके वेस्ट का इस्तेमाल करें, क्योंकि लीची में वेस्ट उसकी गुठलियां ही होती हैं।” देश में लगभग 83 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में लीची की खेती होती है। फोटो: गाँव कनेक्शन वो आगे कहते हैं, “विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. आरसी श्रीवास्तव की प्रेरणा से यह हो पाया है। हमने सोचा कि क्यों न लीची की गुठलियों का इस्तेमाल फीड बनाने में किया जाए, साथ ही पिछले चार-पांच सालों में बिहार के लीची उत्पादक जिलों में लीची जूस बनाने की बहुत सारी प्रोसेसिंग यूनिट्स लग गईं हैं, जहां पर लीची से जूस निकालने के बाद बहुत सारा वेस्ट मटेरियल निकलता है, तब कुलपति ने हमसे कहा कि कैसे हम लीची के वेस्ट मटेरियल का इस्तेमाल कर सकते हैं।” भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान के अनुसार, इस समय पूरे देश में लगभग 83 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में लीची की खेती होती है। विश्व में चीन के बाद सबसे अधिक लीची का उत्पादन भारत में ही होता है। इसमें बिहार में 33-35 हज़ार हेक्टेयर में लीची के बाग हैं। भारत में पैदा होने वाली लीची का 40 फीसदी उत्पादन बिहार में ही होता है। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे प्रदेशों में भी लीची की खेती होती है। अकेले मुजफ्फरपुर में 11 हजार हेक्टेयर में लीची के बाग हैं। फीड बनाने की प्रक्रिया के बारे में डॉ शिवेंद्र कहते हैं, “दो साल पहले हमने इसकी शुरूआत की थी, मछली की दाने में लीची की गुठली के साथ ही गेहूं, मक्का, सोयाबीन, सरसों की खली और धान की भूसी का इस्तेमाल होता है। इसमें 10% लीची की गुठली और बाकी 80 फीसदी बाकी बचे दाने वगैरह डाले जाते हैं। हमने कॉलेज के तालाब में मछलियों को यही दाना दिया और जिनका अच्छा रिजल्ट भी मिला है।” मछली पालन में जितना जरूरी मछलियों की बढ़िया प्रजातियों का चयन होता है, उतना ही जरूरी मछलियों के दाने का भी इस्तेमाल होता है। डॉ शिवेंद्र के अनुसार, परीक्षण के बाद पाया है कि मछलियों के दाना बनाते समय 10% लीची सीड मिला सकते हैं, यानि की एक किलो फीड में 100 ग्राम लीची सीड मिला सकते हैं, लेकिन हमें लीची के जूस निकालने के बाद बचे वेस्ट को मिलाना है तो उसे 20% तक मिला सकते हैं। आंध्र प्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों में मीठे जल की मछलियों का पालन होता है, अगर आने वाले समय इन प्रदेशों में लीची की गुठलियों का इस्तेमाल होता है तो किसानों की लागत में भारी कमी आ सकती है। मछली की दाने में लीची की गुठली के साथ ही गेहूं, मक्का, सोयाबीन, सरसों की खली और धान की भूसी का इस्तेमाल होता है। इससे मछलियों के फीड बनाने में हमारा 20 से 25% तक लागत कम हो रही है। विश्वविद्यालय ने बिहार के कई मछली पालकों को भी लीची की गुठलियों बना फीड दिया है। डॉ. शिवेंद्र कहते हैं, “कॉलेज के तालाब में तो अच्छा रिजल्ट आया है, अब हमने किसानों को भी ये फीड दिया है, क्योंकि एक साल में इसका बढ़िया रिजल्ट आएगा, इसलिए एक साल बाद किसानों से बात करेंगे कि उनका कैसा अनुभव रहा।” भारत, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश है और एक्वाकल्चर उत्पादन के साथ ही अंतर्देशीय मत्स्य पालन में भी दूसरे स्थान पर है। साल 2018-19 के दौरान देश का मछली उत्पादन 137 लाख टन था, जिसमें अंतर्देशीय क्षेत्र का योगदान 95 लाख टन और समुद्री क्षेत्र का योगदान 41 लाख टन का था। वर्ष 2017-18 के दौरान, भारत ने 13.7 लाख टन मछली का का निर्यात किया, जिसकी कीमत 45 हज़ार करोड़ रुपए से अधिक थी। मछली पालन में उनका दाना सबसे जरूरी होता है, जितना अच्छा दाना देंगे उतनी अच्छी पैदावार होगा। किसान अच्छी प्रजातियां की मछलियां तो पाल लेते हैं, लेकिन कई बार उनके आहार पर ध्यान नहीं देते हैं, जिससे नुकसान भी उठाना पड़ जाता है। इसलिए जितनी जरूरी मछलियों की बढ़िया प्रजातियों का चयन होता है, उतना ही जरूरी मछलियों के दाने का भी इस्तेमाल होता है। #fish farming fresh water fish #Bihar fish feed #story  Next Story फलों और सब्जियों को लंबे समय तक सुरक्षित रखेगा उपकरण, बढ़ेगी किसानों की आमदनी भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा विकसित यह सस्ता उपकरण फसलों के उत्पादन के बाद होने वाले नुकसान से बचा सकता है। यह उपकरण फलों और सब्जियों को लंबे समय तक सुरक्षित रखता है, और बिजली की कटौती से प्रभावित कोल्ड स्टोरेज के विपरीत, यह उपकरण सौर ऊर्जा पर काम करता है। Shivani Gupta   14 Aug 2021 पपीते को बिना फॉर्मूले (बाएं) और फॉर्मूला (दाएं) के साथ डिवाइस में रखा गया है। सभी तस्वीरें: जगदीस गुप्ता कापुगंती। भारत में उत्पादित कुल फलों और सब्जियों का लगभग 30 प्रतिशत हर साल बर्बाद हो जाता है, लगभग 40 मिलियन टन फलों और सब्जियों के बर्बाद होने से 965.39 बिलियन रुपये का नुकसान होता है। बागवानी वैज्ञानिकों के स्वतंत्र संगठन इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर हॉर्टिकल्चरल साइंस के अनुसार मुख्य रूप से कृषि उपज को खराब होने से बचाने के लिए उचित भंडारण और परिवहन सुविधाओं की कमी के कारण नुकसान उठाना पड़ता है। इस समस्या का हल निकालने के लिए, भारतीय वैज्ञानिक फलों और सब्जियों को लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिएअपनी तरह का पहला नवाचार लेकर आए हैं। यह कोल्ड स्टोरेज का एक ऊर्जा कुशल और सस्ता विकल्प है, जिसे विशेष रूप से किसानों द्वारा उपयोग के लिए विकसित किया गया है। ‘शेल्फ लाइफ एन्हांसर’ नाम के इस उपकरण की मदद से देश में भंडारण, परिवहन और वितरण सुविधाओं की कमी के बावजूद फसल उत्पादन के बाद से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। डिवाइस कैसे काम करती है के बारे में बताते हुए, नई दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ प्लांट जीनोम रिसर्च के शोधकर्ता, जगदीस गुप्ता कापुगंती, जिन्होंने इसे विकसित किया है, ने कहा, “फलों और सब्जियों का नुकसान उपज के अधिक पकने के कारण होता है, जो एथिलीन के बढ़े हुए स्तर से होता है। एथिलीन, एक गैसीय घटक होता है, जिससे फल और सब्जियां पकते हैं।” “इस समस्या का समाधान करने के लिए, हमने एक फॉर्मुला विकसित किया है (जिसे डिवाइस के अंदर रखा गया है) जो प्राकृतिक संसाधनों से बहुत कम मात्रा में नाइट्रिक ऑक्साइड उत्पन्न कर सकता है। नाइट्रिक ऑक्साइड एथिलीन का अवरोधक है”,कापुगंती ने गांव कनेक्शन को समझाया। वह उस टीम का नेतृत्व करते हैं जो पिछले दो वर्षों से नवाचार पर काम कर रही है। उन्होंने कहा, “सीधे शब्दों में कहें तो शेल्फ लाइफ बढ़ाने वाले फलों और सब्जियों के पकने में देरी करते हैं जिससे उनकी शेल्फ लाइफ बढ़ जाती है।” जगदीस गुप्ता कापुगंती (बीच में) उस टीम का नेतृत्व करते हैं जो पिछले दो वर्षों से नवाचार पर काम कर रही है। इस उपकरण के बहुत से फायदें हैं, उदाहरण के लिए, डिवाइस का उपयोग करने से केले और टमाटर की शेल्फ लाइफ एक सप्ताह, चीकू दो सप्ताह और शरीफा दो-तीन दिनों तक बढ़ जाती है। आम तौर पर इन फलों और सब्जियों को केवल दो-तीन दिनों तक ही स्टोर किया जा सकता है। वैज्ञानिक ने बताया कि फिलहाल टीम डिवाइस को औपचारिक नाम देने के लिए ट्रेडमार्क की तलाश कर रही है। अभी के लिए, शोधकर्ताओं ने डिवाइस को ‘शेल्फ लाइफ एन्हांसर’ नाम दिया है। कापुगंती ने इस तकनीक के लिए कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट के लिए अप्लाई किए हैं। उन्हें नई दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (बीआईआरएसी) -बायोटेक्नोलॉजी इग्निशन ग्रांट से वित्त पोषण मिला। भारत में फसल कटाई के बाद का नुकसान जर्नल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस एंड फूड रिसर्च में प्रकाशित 2018 के लेख के अनुसार, भारत जितना फल और सब्जियां खाता है उससे ज्यादा बर्बाद करता है। फसल चक्र, मृदा संरक्षण, कीट नियंत्रण, उर्वरक, सिंचाई जैसी तकनीकों द्वारा उत्पादन के स्तर को बढ़ाने के लिए कटाई से पहले के चरणों पर ध्यान दिया जाता है। लेकिन, कटाई (तुड़ाई) के बाद ध्यान नहीं दिया जाता है। फसल की कटाई (तुड़ाई) बाद होने वाले इन नुकसानों को अपर्याप्त भंडारण सुविधाओं, कोल्ड चेन में अंतराल जैसे खराब बुनियादी ढांचे, अपर्याप्त कोल्ड स्टोरेज क्षमता, खेतों के नजदीक कोल्ड स्टोरेज की अनुपलब्धता और खराब परिवहन बुनियादी ढांचे के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। फलों और सब्जियों के सीमित शैल्फ जीवन के कारण, बागवानी फसलों को उगाने वाले किसानों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है। कोल्ड स्टोरेज के बुनियादी ढांचे और रेफ्रिजेरेटेड वाहनों तक पहुंच की कमी उन्हें कम कीमत पर अपनी उपज बेचने के लिए मजबूर करती है जिसके कारण किसान निराश होते हैं और कभी-कभी किसान आत्महत्या भी कर लेते हैं। इस प्रकार, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा हासिल करने के बावजूद, 200 मिलियन से अधिक भारतीय किसानों और खेतिहर मजदूरों की भलाई, जो भारतीय कृषि की रीढ़ हैं, गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। इस चैंबर के बाएं दो कक्षों में फल बिना फॉर्मुला के हैं और दाएँ दो चैंबर फॉर्मुला के साथ हैं। कैसे काम करता है शेल्फ लाइफ एन्हांसर भंडारण, परिवहन और वितरण के दौरान फलों और सब्जियों की कटाई के बाद के नुकसान को कम करने के लिए डिवाइस नाइट्रिक ऑक्साइड के पोस्ट हार्वेस्ट एप्लिकेशन का उपयोग करता है। “हमारे पास दो चैंबर हैं, एक छोटा है और दूसरा एक बड़ा चैंबर है। छोटे चैंबर में, हम फॉर्मुला रखते हैं, जहां से नाइट्रिक ऑक्साइड धीरे-धीरे बड़े चैंबर में छोड़ा जाता है। फलों और सब्जियों को बड़े चैंबर में रखा जाता है, “कापुगंती ने बताया। “यह फॉर्मुला बहुत कम मात्रा में नाइट्रिक ऑक्साइड छोड़ता है। यह दुनिया में अपनी तरह का पहला इनोवेशन है।” उन्होंने आगे कहा। नाइट्रिक ऑक्साइड विभिन्न पौधों की शारीरिक प्रक्रियाओं जैसे फलों के पकने और फलों और सब्जियों के खराब होने में एक बहुक्रियाशील सिग्नलिंग अणु के रूप में कार्य करता है। जर्नल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस एंड फूड रिसर्च के अनुसार, नाइट्रिक ऑक्साइड के प्रयोग से एथिलीन के उत्पादन को कम करने और पकने दर को कम करने के लिए फायदेमंद दिखाया गया है। कापुगंती ने बताया कि शरीफा, केला, चीकू, आम, नाशपाती, बेर, पपीता और टमाटर और ब्रोकोली जैसी सब्जियों के लिए नाइट्रिक ऑक्साइड के सफल प्रयोग का परीक्षण किया गया है। यह एथिलीन की क्रिया को बाधित करके किया जाता है जिससे फलों और सब्जियों को लंबे समय तक खराब होने से बचाया जा सकता है। अनानस एक उपकरण में बिना फॉर्मुला (बाएं) और फॉर्मुला (दाएं) के साथ रखा जाता है। बिना बिजली के सौर ऊर्जा से चलेगी डिवाइस भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी विभाग के तहत एक स्वायत्त संस्थान नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ प्लांट जीनोम रिसर्च के वैज्ञानिकों ने लंबे समय तक उत्पाद को स्टोर करने के लिए उपकरण बनाने के लिए लकड़ी, पॉलीएक्रिलिक सामग्री का उपयोग किया है। कोल्ड स्टोरेज के साथ एक बड़ी समस्या यह है कि यह बिजली आपूर्ति पर निर्भर है। भारतीय कोल्ड स्टोरेज ज्यादातर ग्रिड बिजली पर चलते हैं। नतीजतन, ग्रामीण भारत में अनियमित बिजली आपूर्ति, बिजली की बढ़ती लागत और पारंपरिक ईंधन पर निर्भरता कोल्ड स्टोरेज उद्योग के संचालन, विस्तार और विकेंद्रीकरण को सीमित करती है। इन समस्याओं के हल के लिए, शोधकर्ताओं ने थर्मोइलेक्ट्रिक कूलर के साथ-साथ सौर पैनलों का उपयोग करके डिवाइस को डिजाइन किया है। “डिवाइस का उपयोग करके, फलों को कई दिनों तक खेतों में भी रखा जा सकता है, क्योंकि सौर पैनल 25 से 27 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान बनाए रखना सुनिश्चित करते हैं। यह सामान्य तापमान है, खेतों में ग्रीष्मकाल में गर्मी की तरह बहुत अधिक नहीं है, “कापुगंती ने बताया। “हमारे पास उपकरणों में थर्मल इलेक्ट्रिक कूलर भी हैं ताकि बिजली की विफलता न हो और उत्पाद को लंबे समय तक सुरक्षित किया जा सके जब तक कि इसे बाहर न ले जाया जाए,” उन्होंने कहा। और भी हैं फायदें “शेल्फ जीवन को बढ़ाने के अलावा, हमने पाया कि उपचारित फलों में उच्च स्तर के पोषक तत्व और खनिज होते हैं। यह मशरूम जैसे फलों और सब्जियों को खराब होने से भी बचाता है। नाइट्रिक ऑक्साइड रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है, “वैज्ञानिक ने दावा किया। इसलिए, डिवाइस यह सुनिश्चित करता है कि ताजगी बनी रहे, लंबे समय के लिए भंडारण, पोषक तत्वों को बढ़ाता है और सूक्ष्मजीवों द्वारा फलों के खराब होने को कम करता है। कोल्ड स्टोरेज का सस्ता विकल्प डिवाइस को विशेष रूप से किसानों, खुदरा विक्रेताओं और उपभोक्ताओं के उपयोग के लिए विकसित किया गया है। “हमारा डिवाइस बेहद सस्ता है। हम दो तरह के उपकरण बना रहे हैं, एक थर्मल इलेक्ट्रिक कूलर के साथ और दूसरा सोलर पैनल के साथ। हमारे द्वारा उपयोग की जाने वाली सामग्री के आधार पर दाम होता है। यह 1,500 रुपये से 5,000 रुपये तक होता है, “कापुगंती ने कहा। यह उपकरण को एक बार खरीदने पर जल्दी नहीं खरीदना पड़ता है, क्योंकि यह लंबे समय तक चलता है। इस्तेमाल किए जाने वाले फार्मूले पर किसानों को एक रुपये प्रति किलो की लागत आने का अनुमान है। पर्यावरण के लिए खतरे को कम करने के लिए शोधकर्ता नए प्लास्टिक के बजाय रिसाइकिल प्लास्टिक का भी उपयोग कर रहे हैं। कापुगंती ने बताया कि टीम नवोन्मेष प्रौद्योगिकी को बढ़ाने के चरण में है ताकि वे इसे कृषि स्तर तक ले जा सकें। “हम बड़े पैमाने पर परीक्षणों के लिए फंड जुटाना चाहते हैं। अभी हम प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए संपर्क करने की प्रक्रिया में हैं। हम डिवाइस निर्माताओं को नॉन-एक्सक्लूसिव लाइसेंस देंगे और फिर डिवाइस बाजार में आ सकती है।” अंग्रेजी में खबर पढ़ें #Fruits #vegetables #cold storage storage post harvest #story  Next Story उत्तर प्रदेश: गन्ना किसानों को भा रहा ई-गन्ना ऐप, 44 लाख किसानों ने किया डाउनलोड उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के लिए ई-गन्ना ऐप काफी मददगार साबित हो रहा है। प्रदेश सरकार के अनुसार इस ऐप से 44.40 लाख किसान मदद ले रहे हैं। गाँव कनेक्शन   12 Aug 2021 13 नवंबर, 2019 को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ई-गन्ना ऐप का लोकार्पण किया था।  उत्तर प्रदेश के एक बड़े हिस्से में किसान गन्ना की खेती करते हैं, गन्ना किसानों को तकनीक से जोड़ने और समय पर गन्ना किसानों को भुगतान सुनिश्चित करने के लिए ई-गन्ना ऐप विकसित किया गया है। उत्तर प्रदेश सरकार के अनुसार साल 2020-21 में 66,963 किसानों को गन्ना खेती में आधुनिक और उन्नत तकनीक का प्रयोग करना सिखाया गया। प्रशिक्षण के माध्यम से यूपी में रिकॉर्ड 81.5 टन गन्ना उत्पादन हासिल किया गया है। यही नहीं प्रदेश के 44.40 लाख किसानों ने ई-गन्ना ऐप डाउनलोड किया है, जहां उन्हें सीधे उत्तर प्रदेश गन्ना विभाग से जुड़े होने का लाभ मिल रहा है। ऐप के माध्यम से किसानों को छुटकारा मिल गया है और ऐप में माध्यम से किसानों को नई जानकारियां भी मिलती रहती हैं। उत्तर प्रदेश गन्ना विभाग के अपर आयुक्त वाईएस मलिक गांव कनेक्शन से बताते हैं, “सितम्बर 2019 में इस ऐप को लॉन्च किया गया था और 13 नवंबर, 2019 को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस ऐप का लोकार्पण किया था। प्रदेश के 44.4 लाख किसानों ने अभी इसे डाउनलोड कर लिया है, यही नहीं गूगल में इसकी 4.1 रेटिंग है। 36,878 लोगों ने गूगल पर इसको रेट किया है, जिसमें 50% ज्यादा लोगों इस ऐप को 5 स्टार दिए हैं। 815 करोड़ बार किसानों ने इसे हिट किया है।” वो आगे कहते हैं, “जब से ऐप लॉन्च हुआ है तभी से यह किसानों के बीच काफी लोकप्रिय हो गया है।” यही नहीं किसानों के लिए स्मार्ट गन्ना किसान वेबसाइट भी शुरू की गई है, वेबसाइट पर अब तक 5.1 करोड़ हिट हो चुके हैं। गन्ना किसानों की शिकायतों को दूर करने के लिए यूपी सरकार ने मोबाइल ऐप के अलावा वेब पोर्टल (caneup.in) के साथ-साथ इनक्वायरी टर्मिनल भी स्थापित किये गये हैं। गन्ना विभाग द्वारा मुख्यालय पर टोल-फ्री नम्बर 1800-121-3203 की व्यवस्था की गयी है। ऐप के जरिए गन्ना किसानों को गन्ने की बिक्री और दूसरी जानकारियां बस एक क्लिक पर ऑनलाइन मिल जाती हैं। ऐप और वेब पोर्टल के माध्यम से किसानों को गन्ना बेचने, सर्वे डेटा, गन्ने से जुड़ी सरकारी सूचनाएं (प्री कैलेंडर), बेसिक कोटा और गन्ने की पर्ची से जुड़ी जैसी सभी जानकारियां मिल जाती है। Also Read: गन्ना बुवाई की ट्रेंच विधि : इन बातों का ध्यान रखेंगे तो मिलेगा ज्यादा उत्पादन #sugarcane farmers e ganna app #uttar pradesh #story  Next Story बिना किसी खर्च के पत्ती लपेटक कीट से धान की फसल बचाने का तरीका धान की फसल को कीटों से बचाने के लिए किसान हजारों रुपए खर्च करते हैं, जबकि शुरू में ही ध्यान देकर कुछ आसान विधियों को अपनाकर किसान कीटों से अपनी फसल बचा सकते हैं। Divendra Singh   11 Aug 2021 कृषि विज्ञान केंद्र, सहारनपुर के वैज्ञानिक डॉ कुशवाहा किसानों को यांत्रिक विधि से कीटों के नियंत्रण के बारे में समझाते हुए। फोटो: अरेंजमेंट ज्यादातर किसानों ने धान की रोपाई कर दी है, जैसे-जैसे फसलों में वृद्धि होती है वैसे ही फसल में कई तरह के कीट भी लगने लगते हैं। कीटों से बचने के लिए किसान कीटनाशक का छिड़काव करते हैं, जिससे कई बार शत्रु कीटों के साथ ही मित्र कीट भी मर जाते हैं। जबकि इनसे निपटने के कई देशी उपाय हैं। धान की फसल में पत्ती लपेटक कीट से निपटने का ऐसा ही एक देशी उपाय है, जिसमें किसान का कोई भी खर्च नहीं लगता और कीटों से भी छुटकारा मिल जाता है। उत्तर प्रदेश के कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक किसानों को देशी तरीकों से पत्ती लपेटक कीटों से छुटकारा पाने का तरीका बता रहे हैं। कृषि विज्ञान केंद्र के अधिकारी और प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. आईके कुशवाहा बताते हैं, “जैसे धान के पौधे बढ़ने लगते हैं, वैसे ही इसमें पत्ती लपेटक कीट भी लगने लगता है। अगर सही समय में इसका प्रबंधन न किया जाए तो यह फसल को काफी नुकसान पहुंचा देते हैं।” वो आगे कहते हैं, “पत्ती लपटेक कीट पत्तियों को लपेटकर उसी में छिप जाते हैं, लेकिन अगर थोड़ा सा भी पत्तियों को हिलाते हैं तो कीट गिर जाते हैं। अब वो चाहे हवाओं से हो या फिर यांत्रिक तरीके से पत्तियों को हिलाकर कीट को गिराएं। इन को हटाने का बहुत आसान तरीका है।” “पत्ती लपेटक कीटों की शुरूआती अवस्था में ही इस यांत्रिक विधि को अपनाना होता है। इसके लिए लगभग मीटर प्लास्टिक की रस्सी को दो लोग धान की पौधों पर बाएं से दाएं चलाते हैं। इसमें धान की फसल में ऊपर से एक तिहाई हिस्से को छूते हुए खेत में बाए से दाएं छू कर चलाते रहें, ऐसा करने से पत्तियों के ऊपरी किनारे को लपेटकर अंदर छिपे कीट खेत में गिर जाते हैं, “डॉ कुशवाहा ने आगे बताया। वो आगे कहते हैं, “लेकिन ये काम शुरूआत में हफ्ते में इस विधि को एक बार जरूर करें और कोशिश करें कि अगर खेत में हल्का भी पानी भरा है तो और बढ़िया रहता है। इससे कीट पानी में गिर कर मर जाते हैं।” पत्ती लपेटक कीट ऐसे पहुंचाते हैं नुकसान पत्ती लपेटक कीट की मादा कीट धान की पत्तियों के शिराओं को लपेटकर उसी में छिपी रहती है और उसी में समूह में अंडे देती है। इन अण्डों से छह-आठ दिनों में सूंडियां बाहर निकलती हैं। ये सूंडियां पहले मुलायम पत्तियों को खाती हैं और बाद में अपने लार से धागा बनाकर पत्ती को किनारों से मोड़ देती हैं और अन्दर ही अन्दर खुरच कर खाती हैं। इससे फसल को काफी नुकसान हो जाता है। Also Read: धान को कीट-पतंगों से बचाने और ज्यादा उत्पादन के लिए अपनाएं ज्ञानी चाचा की सलाह #paddy cultivation #paddy farming #story  Next Story हाइड्रोजेल की मदद से कम पानी में भी पा सकते हैं बढ़िया उत्पादन, नहीं करनी पड़ेगी बार-बार सिंचाई हाइड्रोजेल की मदद से किसान कम पानी में भी फसलों से बढ़िया उत्पादन पा सकते हैं, लेकिन ज्यादातर हाइड्रोजेल ऐसे होते हैं जो जल्दी नष्ट नहीं होते और पर्यावरण के लिए नुकसानदायक होते हैं। ऐसे में त्रिपुरा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने पौधों के सेल्यूलोज से हाइड्रोजेल विकसित किया है। जोकि पर्यावरण के लिए पूरी तरह सुरक्षित है। Divendra Singh   10 Aug 2021 हाइड्रोजेल के कण बारिश होने पर या सिंचाई के वक्त खेत में जाने वाले पानी को सोख लेता है और जब बारिश नहीं होती है तो इनसे धीरे-धीरे पानी रिसता है। फोटो: गाँव कनेक्शन जिस तरह से जलसंकट बढ़ रहा है, कई राज्यों में तो सूखे ने खेती को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है। अगर ऐसा ही रहा तो कुछ साल में कहीं खेती नहीं हो पाएगी। ऐसे में हाइड्रोजल जेल की मदद से कम पानी में भी खेती कर सकते हैं। जिस तरह से जल संकट बढ़ रहा है, वो दिन दूर नहीं जब खेती के लिए भी पानी मुश्किल से उपलब्ध होगा। वैज्ञानिक प्रयास में लगे हैं कि किस तरह से किसानों की मदद कर पाएं, ऐसे में वैज्ञानिकों ने हाइड्रोजेल विकसित किया है, जिसकी मदद से किसान कम पानी में खेती कर सकते हैं। देश ही नहीं दुनिया में बहुत से वैज्ञानिकों ने हाइड्रोजेल विकसित किए हैं, लेकिन त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला ने पूरी तरह से प्राकृतिक पौधों के पॉलीमर से हाइड्रोजेल विकसित करने में सफलता हासिल की है। त्रिपुरा विश्वविद्यालय के केमिकल और पॉलीमर इंजीनियरिंग विभाग के डॉ सचिन भालाधारे और उनकी टीम ने इस हाइड्रोजेल को विकसित किया है। डॉ सचिन भालाधारे गाँव कनेक्शन से हाइड्रोजेल के बारे में बताते हैं, “हाइड्रोजेल पर बहुत सारा रिसर्च चल रहा है, सिर्फ इंडिया में ही नहीं बाहर भी इस पर वैज्ञानिक रिसर्च कर रहे हैं। क्योंकि पानी की कमी पूरी दुनिया में एक बड़ी समस्या है।” राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन के अनुसार हाइड्रोजेल की मदद से मिट्टी की जल धारण क्षमता 50-70% तक बढ़ सकती है। फोटो: दिवेंद्र सिंह पौधों के सेल्यूलोज से बने हाइड्रोजेल की खासियतों के बारे में डॉ भालाधारे ने कहा, “हम लोग सेल्यूलोज जोकि एक बॉयो पॉलीमर है और पौधों से मिलता है। इसके बारे में कहा जाता है कि यह खत्म नहीं होता और दूसरे पॉलीमर से इसकी तुलना करें तो ये कभी खत्म नहीं होगा और इसकी कमी नहीं होगी। इसलिए हमने हाइड्रोजेल बनाने के लिए पौधों से सेल्यूलोज लिया है। हम ऐसा मटेरियल चाहते हैं जिससे पर्यावरण को भी कोई नुकसान न हो और खुद से नष्ट भी हो जाए। हमने इसमें ऐसा मटेरियल लिया है जोकि नॉन टॉक्सिक हो और आसानी से मिल भी जाए।” हाइड्रोजेल भी एक तरह का पॉलीमर ही होता है, ये एक चेन की तरह होता है, जिसमें बीच में खाली जगह होती है, जैसे कि एक जाल होता है, उसमें भी बीच में खाली जगह होती है, उसी तरह से इसमें भी खाली जगह होती है, जहां पर पानी इकट्ठा हो जाता है और धीरे-धीरे पानी को छोड़ता है। इसमें इवैपरेशन (वाष्पीकरण) नहीं होगा, अगर होगा भी तो बहुत सीमित मात्रा में होगा। “हम इसके साथ यह भी देखते हैं कि पौधों पर इसका क्या असर पड़ता है, इसके लिए एक में हम हाइड्रोजेल रखते हैं और एक में नहीं और फिर हम देखते हैं कि इसका पौधों पर क्या असर पड़ रहा, कौन से पौधे ज्यादा अच्छे से ग्रोथ कर रहे हैं, अभी हमने इसका लैब में टेस्ट कर लिया है, जिसका बेहतर परिणाम भी मिला है, “डॉ सचिन ने बताया। हाइड्रोजेल क्रिस्टल या ग्रेन्यूल फॉर्म होगा। इससे खेत में इसे आसानी से उपयोग कर सकेंगे। साल 2019 में भूमि की सिंचाई में पानी की बर्बादी को रोकने, सूखे की मार को कम करने, उर्वरकों की क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन के तहत इस शोध परियोजना को स्वीकृत दी थी। इस परियोजना के तहत ही त्रिपुरा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक हाइड्रोजेल पर काम कर रहे हैं। डॉ भालाधारे बताते हैं, “हमें राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन तहत इस रिसर्च के लिए फंड मिला है, इस पर काम चल रहा है। कोविड महामारी के चलते थोड़ा देरी हुई है, नहीं तो अब तक पूरी तरह से रिसर्च हो जाती है। अभी हमने हाइड्रोजेल विकसित कर लिया है और मिट्टी पर इसका परीक्षण भी कर लिया है, तीन साल का हमारा यह प्रोजेक्ट है। अभी फील्ड ट्रायल होना है, जिस पर काम चल रहा है, कोशिश है कि जल्दी ही इसे हम पूरा कर पाएं।” हाइड्रोजेल क्रिस्टल या ग्रेन्यूल फॉर्म होगा। इससे खेत में इसे आसानी से उपयोग कर सकेंगे। हाइड्रोजेल के कण बारिश होने पर या सिंचाई के वक्त खेत में जाने वाले पानी को सोख लेता है और जब बारिश नहीं होती है तो इनसे धीरे-धीरे पानी रिसता है, जिससे फसलों को पानी मिल जाता है। फिर अगर बारिश हो तो हाइड्रोजेल दोबारा पानी को सोख लेता है और जरूरत के अनुसार फिर उसमें से पानी का रिसाव होने लगता है। #hydrogel #irrigation #water conservation tripura university #story  Next Story बागवानी फसलों की खेती करने वाले किसानों की मददगार बनेगी ‘रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस’ तकनीक सीएसआईआर-सीएमईआरआई द्वारा विकसित रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस से किसान पॉलीहाउस में मौसमी और गैर-मौसम वाली दोनों ही तरह की फसलों की खेती कर सकते हैं। Divendra Singh   9 Aug 2021 रिट्रैक्टेबल रूफ का प्रयोग धूप की मात्रा और समय, आर्द्रता, कार्बन डाई-ऑक्साइड और फसल और मिट्टी के तापमान के स्तर को बदलने के लिए किया जाएगा। (Representative Picture: freepic)  पॉली हाउस में खेती करके किसान न केवल अच्छा उत्पादन पाते हैं, बल्कि कई तरह के नुकसान से भी बच जाते हैं। लेकिन पूरी तरह से बंद पॉलीहाउस के जितने फायदे हैं तो नुकसान भी हैं, इसलिए वैज्ञानिक ऐसे पॉली हाउस को विकसित कर रहे हैं, जिसकी छत को जब चाहे खोल या बंद कर सकते हैं। सीएसआईआर-केंद्रीय यांत्रिक अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (सीएसआईआर-सीएमईआरआई), दुर्गापुर के वैज्ञानिक ‘रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस’ विकसित कर रहे हैं, यह पॉलीहाउस पंजाब के एक्सटेंशन सेंटर लुधियाना में लगाया जा रहा है। ‘रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस’ पॉली हाउस को विकसित करने वाली टीम के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ जगदीश माणिक राव, गाँव कनेक्शन को बताते हैं, “अभी हमारे यहां नेचुरली वेंटिलेटेड पॉलीहाउस ही लगाते हैं, लेकिन अब हम इसी के साथ ही ‘रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस’ विकसित कर रहे हैं। इसमें हम पॉली हाउस की छत को खोल या फिर बंद कर सकते हैं, जिस फसल को जैसा मौसम चाहिए हम इसमें वैसा ही वातावरण दे सकते हैं। जैसे कि कोई फसल बारिश में होती है तब हम इसकी छत हटा सकते हैं। अगर बारिश की जरूरत नहीं या फिर हवा ज्यादा तेज है तो हम छत को बंद कर सकते हैं।” डॉ जगदीश माणिक राव नेचुरली वेंटिलेटेड पॉलीहाउस की फायदे बताते हैं, ” जैसे कि सुबह के समय सर्दियों में धूप कम होती है, जबकि फसल को बराबर धूप चाहिए होती है, ऐसे में हम छत को हटाकर धूप को फसल तक पहुंचा सकते हैं। यह पूरी तरह से ऑटोमैटिक तरह से काम करेगा, पीएलसी सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हुए हम सेंसर लगा रहे हैं, जैसे रेन सेंसर, कॉर्बन डाई ऑक्साइड सेंसर, ह्युमिडिटी सेंसर, टेम्प्रेचर सेंसर जैसे सेंसर लगा रहे हैं। फसल को जैसी जरूरत होगी है उसी हिसाब से हम उसे वातावरण देंगे।” ऑटोमैटिक रिट्रैक्टेबल रूफ, पीएलसी सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हुए कंडीशनल डेटाबेस से मौसम की स्थिति और फसल की जरूरतों के आधार पर संचालित होगी। (Representative Picture: freepic) अभी तक पॉली हाउस में अंदर अलग से ब्लोअर लगाना पड़ता है, वेंटीलेशन की व्यवस्था करनी पड़ती है, पॉली हाउस के अंदर की मिट्टी भी गर्म हो जाती है, लेकिन हम छत हटाकर उसे प्राकृतिक वातावरण दे सकते हैं। इसमें सूर्य के प्रकाश की मात्रा, जल तनाव, आर्द्रता, कार्बन डाई-ऑक्साइड और फसल और मिट्टी के तापमान के स्तर को बदलने के लिए किया जाएगा। वैज्ञानिक इसमें रेन सेंसर भी लगा रहे हैं जिससे जैसे बारिश हुई और हमारे फसल के लिए बारिश की जरूरत नहीं है तो छत अपने आप बंद हो जाएगी। ये पूरी तरह से ऑटोमैटिक रहेगा। ‘नेचुरली वेंटिलेटेड पॉलीहाउस’ की तुलना में ‘रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस’ में कितना खर्च आएगा, इस बारे में माणिक राव कहते हैं, “नेचुरली वेंटिलेटेड पॉलीहाउस में प्रति वर्ग मीटर एक हजार रुपए खर्च होते हैं, इस तरह अगर किसान को पता है कि कौन सी फसल को क्या जरूरत है तो नेचुरली वेंटिलेटेड पॉलीहाउस की तरह ही रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस भी होगा, जिसे किसान मैनुअली ओपन या क्लोज कर सकता है। इसमें दोनों का बराबर ही खर्च आएगा, लेकिन अगर किसान पूरी तरह से ऑटोमैटिक पॉली हाउस चाहता है तो प्रति वर्ग मीटर 1000 रुपए से 1500 तक हो जाता है। ये किसान के ऊपर निर्भर करता है कि उसे कैसा चाहिए।” सीएसआईआर-सीएमईआरआई के एक्सटेंशन सेंटर, लुधियाना में ‘नेचुरली वेंटिलेटेड पॉलीहाउस फैसिलिटी’ और ‘रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस’ लगाया जा रहा है। रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस सिस्टम कैसे काम करता है के लाभों पर वैज्ञानिक प्रयोगात्मक आंकड़े की कमी है, इसलिए फसल उत्पादन और उपज की गुणवत्ता की तुलना करने के लिए प्राकृतिक रूप से हवादार पॉलीहाउस और रिट्रैक्टेबल रूफ पॉली हाउस दोनों में बागवानी फसलों की खेती की जाएगी। उसके बाद दोनों में तुलना कि जाएगी कि किसानों के लिए कौन सा पॉली हाउस ज्यादा बेहतर है। पिछले महीने 31 जुलाई को सीएसआईआर-सीएमईआरआई के निदेशक डॉ. (प्रो.) हरीश हिरानी ने लुधियाना में ‘नेचुरली वेंटिलेटेड पॉलीहाउस फैसिलिटी’ का उद्घाटन किया और रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस की आधारशिला रखी। सीएमईआरआई के निदेशक डॉ. हरीश हिरानी ने ‘नेचुरली वेंटिलेटेड पॉलीहाउस फैसिलिटी’ का उद्घाटन किया और रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस की आधारशिला रखी। प्रोफेसर हिरानी ने इसकी जानकारी देते हुए कहा कि किसानों को अत्यधिक या अपर्याप्त ठंड, गर्मी, बारिश, हवा, और अपर्याप्त वाष्पोत्सर्जन से जुड़े अन्य कारकों जैसी कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, और साथ ही भारत में कीटों के कारण भी वर्तमान में लगभग 15 प्रतिशत फसल का नुकसान होता है तथा यह नुकसान बढ़ सकता है क्योंकि जलवायु परिवर्तन कीटों के खिलाफ पौधों की रक्षा प्रणाली को कम करता है। पारंपरिक पॉलीहाउस से कुछ हद तक इन समस्याओं को दूर किया जा सकता है।” उन्होंने आगे कहा, “पारंपरिक पॉलीहाउस में मौसम की विसंगतियों और कीटों के प्रभाव को कम करने के लिए एक स्थिर छत होती है। हालांकि, छत को ढंकने के अब भी नुकसान हैं जो कभी-कभी अत्यधिक गर्मी और अपर्याप्त प्रकाश (सुबह-सुबह) का कारण बनते हैं। इसके अलावा, वे कार्बन डाईऑक्साइड, वाष्पोत्सर्जन और जल तनाव के अपर्याप्त स्तर के लिहाज से भी संदेवनशील होते हैं। खुले क्षेत्र की स्थितियों और पारंपरिक पॉलीहाउस स्थितियों का संयोजन भविष्य में जलवायु परिवर्तन और उससे जुड़ी समस्याओं से निपटने के लिहाज से एक ज्यादा बेहतर तरीका है।” डॉ. हरीश हिरानी ने रिट्रैक्टेबल रूफ पॉलीहाउस टेक्नोलॉजी के बारे में बताया कि हर मौसम में काम करने लिहाज से उपयुक्त इस प्रतिष्ठान में ऑटोमैटिक रिट्रैक्टेबल रूफ (स्वचालित रूप से खुलने-बंद होने वाली छत) होगा जो पीएलसी सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हुए कंडीशनल डेटाबेस से मौसम की स्थिति और फसल की जरूरतों के आधार पर संचालित होगा। इस प्रौद्योगिकी से किसानों को मौसमी और गैर-मौसम वाली दोनों ही तरह की फसलों की खेती करने में मदद मिलेगी।” वैज्ञानिक छह महीने तक दोनों पॉली हाउस पर परीक्षण करेंगे। वैज्ञानिकों के अनुसार अगले छह महीने में किसानों तक यह तकनीक पहुंचाना चाहते हैं। यह तकनीक हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान (सीएसआईआर-आईएचबीटी), पालमपुर के सहयोग से विकसित की जा रही है। Also Read: पहाड़ों पर खेती करने वाले किसानों के लिए वैज्ञानिकों ने विकसित किया पोर्टेबल पॉली हाउस #Polyhouse #Poly house Farming #CSIR #story  Next Story इंटीग्रेटेड फार्मिंग मॉडल: एक एकड़ जमीन से हर महीने 25,000 तक की कमाई उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के कृषि विभाग ने छोटे किसानों की आय बढ़ाने के लिए इंटीग्रेटेड फार्मिंग सिस्टम यानी एकीकृत कृषि प्रणाली तैयार की है। मुर्गी पालन और मछली पालन के साथ ही खेती करके किसान एक एकड़ जमीन से 25000 रुपए हर महीने कमा सकते हैं। Mohit Shukla   9 Aug 2021 सीतापुर (उत्तर प्रदेश)। कोविड-19 महामारी के चलते खेती करने वाले किसानों की की आय कम हो गई है और सबसे ज्यादा नुकसान छोटे और सीमांत किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। ऐसे में कृषि विभाग, सीतापुर ने इंटीग्रेटेड फार्मिंग मॉडल तैयार किया है। इस मॉडल को अपनाकर छोटे किसान एक एकड़ जमीन से हर महीने 20,000-25000 रुपए तक कमा सकते हैं। कृषि विभाग, सीतापुर के उप निदेशक अरविंद मोहन मिश्रा ने गांव कनेक्शन को बताते हैं कि एकीकृत कृषि मॉडल में गन्ने की प्राथमिक फसल के साथ मछली पालन, मुर्गी पालन और सब्जी की खेती को जोड़ा गया है। इस मॉडल को एक एकड़ जमीन पर आसानी से अपनाया जा सकता है। इस एकीकृत मॉडल राज्य की राजधानी लखनऊ से लगभग 88 किलोमीटर दूर जिला कृषि विभाग के कार्यालय में स्थापित किया गया है। अरविंद मोहन मिश्रा, उप निदेशक कृषि विभाग, सीतापुर। “कोविड के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के लिए आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा है। हम किसानों को आत्मनिर्भर बनने में मदद करने के लिए परियोजना लेकर आए हैं, “मिश्रा ने गांव कनेक्शन को बताया। “एक एकीकृत फार्म शुरू करने की कुल लागत लगभग 78,000 रुपये आती है। एक छोटा सा तालाब भी बनाया गया है जिसमें बत्तख और मछलियां पाली जाती हैं, “उन्होंने कहा। एकीकृत कृषि तकनीक विशेष रूप से छोटे और सीमांत किसानों के लिए फायदेमंद है, खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल किसानों में से 82 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान हैं। मुर्गी और मछली पालन के साथ एकीकृत खेती सीतापुर के कृषि विभाग द्वारा विकसित मॉडल के अनुसार, किसानों की 35 प्रतिशत भूमि पर मछली पालन और मुर्गी पालन (बत्तख सहित) करना चाहिए, जबकि 20 प्रतिशत खेत का उपयोग गन्ना जैसी नकदी फसल की खेती के लिए किया जाएगा। 25 प्रतिशत खेत का उपयोग धान जैसी मुख्य फसल उगाने के लिए किया जाना है, 10 प्रतिशत इन फसलों तक पहुंचने के लिए रास्ता बनाने के लिए, और बाकी बची जमीन का उपयोग सब्जियां उगाने के लिए किया जाना है। इस मॉडल को अपनाकर छोटे किसान एक एकड़ जमीन से हर महीने 20,000-25000 रुपए तक कमा सकते हैं। “एकीकृत कृषि प्रणाली में कोशिश की जाती है कि रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कम से कम हो और जैविक कृषि तकनीकों का उपयोग किया जाए। उदाहरण के लिए, मुर्गी की बीट न केवल मिट्टी की उर्वरता के लिए अच्छा है बल्कि तालाब में मछलियों के लिए चारे के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा, हम केंचुओं का उपयोग वर्मी कम्पोस्ट बनाने के लिए करते हैं जिसका उपयोग आगे मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए किया जाता है, “मिश्रा ने गांव कनेक्शन को बताया। एकीकृत खेती की लागत एकीकृत खेती की लागत लगभग 108,000 आती है, जिसमें से मत्स्य विभाग द्वारा 40% और कृषि विभाग द्वारा 50% साझा की जाएगी। उप निदेशक ने बताया, “मछली पालन में लगभग 5,000 रुपए की लागत आती है और मुर्गी पालन में 14,000 की लागत आती है। एकीकृत कृषि प्रणाली में कड़कनाथ किस्म के मुर्गे-मुर्गियों को पालने की सलाह दी जाती है और यह चार महीने की अवधि में इनका वजन लगभग 1.5 किलोग्राम (किलो) से दो किलोग्राम तक बढ़ जाता है। इससे किसानों को लगभग 142,500 रुपये का लाभ आसानी से मिल सकता है। मछलीपालन के साथ ही कड़कनाथ मुर्गों से किसान अच्छी कमाई कर सकते हैं। “इसके अलावा, मछलियां तेजी से बढ़ती हैं। वे 25 दिनों में बढ़ जाती हैं और इससे किसानों की आय में चालीस हजार रुपये और जुड़ सकते हैं। गन्ना और सरसों को एक साथ बोया जाता है, जिसमें 15,000 रुपए की लागत आती है, जिससे 45,000 रुपए का मुनाफा कमाया जा सकता है, “अरविंद मोहन मिश्रा ने गांव कनेक्शन को बताया। किसानों को दी जा रही है ट्रेनिंग जिला कृषि विभाग ने किसानों को एकीकृत खेती का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया है। वर्तमान में 10 किसानों को अपने खेत में इस तकनीक का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है और राज्य भर में एकीकृत खेती को लागू करने के लिए उच्च अधिकारियों को पत्र लिखा गया है। जिले के आलिया ब्लॉक के बम्बोरा गांव के 55 वर्षीय किसान आनंद कुमार भी उन किसानों में से एक हैं, जिन्होंने सीतापुर के कृषि विज्ञान केंद्र से प्रशिक्षण लिया है। “मैंने केंद्र में जो कुछ सीखा है, उससे मैं उत्साहित हूं और मैं इसे अपनी एक एकड़ जमीन पर अपनाने वाला हूं। मुझे लगता है कि इससे हमारी आय बढ़ेगी, “कुमार ने गांव कनेक्शन को बताया। अंग्रेजी में खबर पढ़ें #Integrated Farming #farming #fish farming #Kadaknath #story #video  More Stories अनार की बागवानी लगाने का सही समय, एक बार लगाकर कई साल तक ले सकते हैं… 25 Aug 2021 बीजों को लंबे समय तक सुरक्षित रखती है हल्दी, विशेषज्ञ से जानिए कैसे… 21 Aug 2021 बरसीम, नैपियर घास, चुकंदर या फिर भूसा… क्या खिलाने पर पशु देंगे… 19 Aug 2021 यूपी के सीतापुर में किसानों के एफपीओ ने खोला पहला आईपीएम मार्ट, जानिए… 18 Aug 2021 देशी गायों के संरक्षण और नस्ल सुधार में मदद करेगी इंडिगऊ चिप 16 Aug 2021 बिहार: मछलियों का दाना बनाने में हो रहा लीची की गुठलियों का इस्तेमाल,… 14 Aug 2021 फलों और सब्जियों को लंबे समय तक सुरक्षित रखेगा उपकरण, बढ़ेगी किसानों… 14 Aug 2021 उत्तर प्रदेश: गन्ना किसानों को भा रहा ई-गन्ना ऐप, 44 लाख किसानों ने… 12 Aug 2021 बिना किसी खर्च के पत्ती लपेटक कीट से धान की फसल बचाने का तरीका 11 Aug 2021 हाइड्रोजेल की मदद से कम पानी में भी पा 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AJAY YADAV

AGRICOP KISAANI

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